स्वामी दयानन्द मथुरा में अपने विद्या गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से अपनी शिक्षा पूर्ण कर सन् 1863 में आगरा पधारे थे और यहां लगभग डेढ़ वर्ष प्रवास किया था।  गुरु जी से विदाई के अवसर पर गुरु दक्षिणा प्रकरण के अन्तर्गत स्वामी दयानन्द जी के जीवनी लेखक पं.  à¤²à¥‡à¤–राम जी ने लिखा है कि तीन वर्ष के समय में उन्होंने दयानन्द जी को व्याकरण के अष्टाध्यायी, महाभाष्य, वेदान्तसूत्र और इससे अतिरिक्त भी जो कुछ विद्याकोष उनके पास था, वह सब उन्हें सौंप दिया था और ऋषिकृत ग्रन्थों से उन्होंने जो बातें निश्चित की हुईं थीं, वे सभी उनके मस्तिष्क में डाल दीं। उनका विचार था कि हमारे शिष्यों में से हमारे काम को यदि कुछ करेगा तो दयानन्द ही करेगा। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर विद्या समाप्ति की सफलता की गुरु दक्षिणा मांगी। दयानन्द ने निवेदन किया कि जो आपकी आज्ञा हो मैं उपस्थित हूं। तब दंडी जी ने कहा कि (1) देश का उपकार करो, (2) सत्य शास्त्रों का उद्धार करो (3) मत-मतान्तरों की विद्या को मिटाओ और (4) वैदिक धर्म का प्रचार करो। स्वामी दयानन्द जी ने अत्यधिक क्षमा प्रार्थना करते हुए और बहुत विनय पूर्वक इसको स्वीकार किया और वहां से विदा हो गये। गुरु जी ने आशीर्वाद दिया और चलते हुए एक अमूल्य बात और भी कह दी कि मनुष्यकृत ग्रन्थों में परमेश्वर और ऋषियों की निन्दा है और ऋषिकृत ग्रन्थों में नहीं, इस कसौटी को हाथ से न छोड़ना।

इसी ग्रन्थ में गुरु दक्षिणा के तुरन्त बाद का यह वर्णन भी उपलब्ध है कि स्वामी जी के पास एक गीता और विष्णु-सहस्रनाम की पुस्तक थी वह मन्दिर लक्ष्मीनारायण के पुजारी को दे दी। स्वामी जी बैशाख मास के अन्त संवत् 1920 तदनुसार अप्रैल सन् 1863 में दो वर्ष 6 मास तक मथुरा में शिक्षा पाने के पश्चात् आगरे की ओर पधार गये। चूंकि गर्मी हो गई थी, इसलिये अपना लिहाफ भी वहां मथुरा के मन्दिर में छोड़ गये। मन्दिर लक्ष्मीनारायण का दूसरा पुजारी घासीराम भी स्वामी जी के साथ आगरे गया था।

आगरा में स्वामी दयानन्द जी ने अप्रैल-मई 1863 से सितम्बर-अक्तूबर सन् 1864 तक प्रवास किया। यहां वर्णन है कि स्वामी जी के पास आगरा में महाभाष्य और कुछ अन्य पुस्तकें थी। सायंकाल और प्रातःकाल समाधि लगाते थे। आगरा प्रवास में ही वेदों की खोज में धौलपुर की ओर प्रस्थान शीर्षक से पृष्ठ 51 (जीवन चरित संस्करण 1985) वर्णन है कि एक दिन स्वामी जी ने पंडित सुन्दरलाल जी से कहा कि कहीं से वेद की पुस्तक लानी चाहिए। सुन्दर लाल जी बड़ी खोज करने के पश्चात् पंडित चेतोलाल जी और कालिदास जी से कुछ पत्रे वेद के लाये। स्वामी जी ने उन पत्रों को देखकर कहा कि यह थोड़े हैं, इनसे कुछ काम न निकलेगा। हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। आगरा में ठहरने की अवस्था में स्वामी जी समय समय पर पत्र द्वारा अथवा स्वयं मिलकर स्वामी विरजानन्द जी से अपने सन्देह निवृत्त कर लिया करते थे।’ इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि आगरा में प्रवास तक स्वामी जी के पास चार वेद वा इनकी मूल संहितायें नहीं थी। इसके बाद जीवन चरित में धौलपुर में 15 दिन रहकर लश्कर की ओर शीर्षक के अन्तर्गत वर्णन है कि स्वामी जी कार्तिक बदि संवत् 1921 तदनुसार 1864 ईस्वी को आगरा से वेद की पुस्तक की खोज में धौलपुर पधारे और वहां 15 दिन तक निवास किया फिर ग्वालियर चले गये।

धौलपुर में स्वामी जी के 15 दिवसीय प्रवास का विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है। वह यहां कहां रहे, किस-किससे मिले और यहां उनकी अन्य क्या-क्या गतिविधियां थी? पूर्व विवरणों में संकेत है कि स्वामीजी वेदों की खोज में यहां आये थे परन्तु इनको यहां वेद प्राप्त हुए या नहीं, इसका उल्लेख उपलब्ध विवरण में प्राप्त नहीं होता। यहां से स्वामी जी 2 नवम्बर, सन् 1864 को ग्वालियर आते हैं जहां महाराज जियाजी राव जी की ओर से भागवत-कथा की बड़े पैमाने पर आयोजन की तैयारी चल रही थी जो कि 4 फरवरी, 1865 से आरम्भ होकर 11 फरवरी, 1865 को सम्पन्न हुई। स्वामी जी धौलपुर से चलकर 2 महीने 23 दिनों बाद ग्वालियर 24 जनवरी, 1865 को ग्वालियर पहुंचे थे। इसका अर्थ है कि स्वामी जी आगरा से धौलपुर 16-17 अक्तूबर, 1864 को आये होंगे। ग्वालियर आने से पूर्व स्वामी जी ने आबू पर्वत पर जाकर अपने योग गुरुओं से भेंट की थी। ग्वालियर से स्वामी जी करौली (राजस्थान) पधारे थे। जीवन चरित में करौली में कई मास रहकर जयपुर को प्रस्थान शीर्षक के अन्र्तगत जानकारी दी गई है कि ग्वालियर से स्वामी जी करौली में पधारे और राजा साहब से धर्मविषय पर वार्तालाप होता रहा और पण्डितों से भी कुछ शास्त्रार्थ हुए और यहां पर कई मास ठहर कर वेदों का उन्होंने पुनः अभ्यास किया, फिर वहां से जयपुर चले गये। यहां करौली में स्वामी जी ने वेदों का पुनः अभ्यास किया, इससे संकेत मिलता है कि वह यहां आने से पहले ग्वालियर, आबूपर्वत या धौलपुर में एक बार वेदों का अभ्यास कर चुके थे। करौली से पूर्व आबूपर्वत में वेदों का अभ्यास करने की सम्भावना अधिक दिखाई देती है, कारण यह कि वहां स्वामी जी लगभग ढाई माह से अधिक रहे। करौली से चलकर स्वामी जी जयपुर, अजमेर, पुष्कर, किशनमढ़, जयपुर, आगरा, मेरठ होते हुए हरिद्वार के कुम्भ के मेले में पहुंचे थे। मेरठ में वर्णन है कि स्वामी जी यहां चारों वेद, चार उपवेद, 6 वेदांग, मनुस्मृति, महाभारत, हरिवंश, वाल्मीकि रामायण और तीनों वर्णों को यज्ञोपवीत पहनने के पश्चात् सन्ध्या गायत्री की आज्ञा देते थे और दो समय सन्ध्या करने का निर्देश करते थे और पंचयज्ञ का उपदेश देते थे। यह भी स्पष्ट कर रहा है कि स्वामी जी को मेरठ आने से पूर्व ही वेदों की प्राप्ती हो चुकी थी।

हरिद्वार में स्वामी जी 12 मार्च, सन् 1867 को पधारे थे। श्री विश्वेश्रानन्द, स्वामी शंकरानन्द, दिल्ली निवासी श्री ईश्वरी प्रसाद गौड़ ब्राह्मण तथा पांच छः अन्य ब्राह्मण आपके साथ थे। सप्तस्रोत (वर्तमान में सप्त सरोवर) पर बाड़ा बांध कर और उसमें आठ-दस छप्पर डलवा कर वहां डेरा किया और वहां एक पताका गाड़ दी जिसका नाम पाखंड खण्डिनी रखा। जीवन चरित में हरिद्वार प्रवास काल में देहरादून के दादू पन्थी स्वामी महानन्द सरस्वती से जुड़ी एक घटना का वर्णन हुआ है जिसका शीर्षक है ‘उन्हें केवल वेद ही मान्य थे-स्वामी महानन्द सरस्वती। घटना इस प्रकार है कि स्वामी महानन्द सरस्वती जो उस समय दादूपंथ में थे, इस कुम्भ पर स्वामी जी से मिले। उनकी संस्कृत की अच्छी योग्यता है। वह कहते हैं कि स्वामी जी ने उस समय रुद्राक्ष की माला, जिसमें एक-एक बिल्लौर या स्फटिक का दाना पड़ा हुआ था, पहनी हुई थी, परन्तु धार्मिक रूप में नही। हमने वेदों के दर्शन, वहां स्वामी जी के पास किये, उससे पहले वेद नहीं देखे थे। हम बहुत प्रसन्न हुए कि आप वेद का अर्थ जानते हैं। उस समय स्वामी जी वेदों के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रन्थ को (स्वतः प्रमाण) न मानते थे। इस घटना में स्वामी जी के पास चार वेद होने का स्पष्ट वर्णन है जिसे महानन्द जी ने देखा था।

प्रश्न यह है कि स्वामी जी को वेद कहां से प्राप्त हुए? आगरा में उनके पास वेद नहीं थे जिसके लिए उन्होंने पं. सुन्दरलाल जी को लाने को कहा था। न मिलने पर उन्होंने कहा था कि हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। यह घटना वेदों की खोज में धौलपुर की ओर प्रस्थान

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